प्रियम वर्मा, । हिंदी फिल्मों की अपनी लोकप्रियता है फिर राजनीति में दक्षिण ही मुकाम क्यों रचता है.! ये चर्चा तब तेज हो गई जब दक्षिण के अभिनेता रजनीकांत ने राजनीति में आने की घोषणा कर दी। इस बहस
ो आगे बढ़ाने के लिए पहले बॉलीवुड के सितारों का रुख देखते हैं। अभिनेत्री उर्मिला मातोंडकर ने शिवसेना में शामिल होने का फैसला लिया। उन्होंने 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कांग्रेस के टिकट पर मुंबई उत्तर से चुनाव लड़ा था लेकिन बीजेपी के गोपाल शेट्टी से हार का सामना करना पड़ा थ उर्मिला मातोंडकर पहली अभिनेत्री नहीं हैं जिन्होंने सत्ता के गलियारों की ओर रुख किया बल्कि इस सफर की शुरुआत रंगीन सिनेमा के पहले की है। इस सफर में 1984 में अभिताभ बच्चन पारिवारिक मित्र राजीव गांधी के चलते राजनीति में आए, इलाहाबाद (अब प्रयागराज) सीट से चुनाव जीते और राजनीति में दोस्ती के तीन साल निभाए। सुनील दत्त भी कांग्रेस के सदस्य के रूप में पांच बार सांसद रहे, विनोद खन्ना पंजाब के गुरदासपुर संसदीय क्षेत्र से बीजेपी के टिकट पर लड़े। ड्रीम गर्ल की आंखों में अभी भी राजनीति का सपना चमक रहा है। धर्मेंद्र का सफर जरूर 2009 तक रहा है। ऐसे दर्जनभर से ज्यादा बॉलीवुड सितारों के टुकड़े-टुकड़े सफर से राजनीतिक डायरी में इनकी सत्ता बसी है जबकि दक्षिण सिनेमा के किसी भी कलाकार के कार्यकाल ने बहुमत पाकर समाज में मिसाल रची है। शुरुआत करते हैं एमजी रामचंद्रन से। इन्होंने कांग्रेस में शामिल होकर राजनीति की शुरुआत जरूर की लेकिन करुणानिधि से बगावत कर 1972 में आल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम पार्टी बनाई और 1987 में मौत तक मुख्यमंत्री रहे। वहीं 1982 में एनटी रामाराव ने तेलगु देशम पार्टी बनाई और 1983 में सरकार बनाई। करुणानिधि 1957 में पहली बार विधायक बने, 1969 में सीएन अन्नादुरई की मौत के बाद तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने। इसके अलावा जयललिता की पारी से हर कोई वाकिफ है। इस कड़ी में इन सबके अलावा चिरंजीवी, कमल हासन जैसे कलाकारों की लंबी फेहरिस्त है। स्पष्ट है कि जब राजनीतिक पारी में इतना अंतर है तो सफलता की खाई तो गहरी होगी ही। रील लाइफ से मिली लोकप्रियता दक्षिण में निश्चित तौर से वोटों में तब्दील होगी ही। ऐसा बॉलीवुड और टॉलीवुड दोनों ही इंडस्ट्री के निर्देशकों का मानना है। निर्देशक और लेखक भरत बाला का कहना है कि दक्षिण के कलाकार अपने किरदार संघर्ष को याद करते हुए चुनते हैं जैसे रजनीकांत की फिल्में गरीबों की पैरवी करती हैं तो मालाश्री सशक्त नारी के तौर पर दिखती हैं। कमल हासन दशावतारम और विश्वरूपम जैसी फिल्मों के जरिए सच के शक्तिशाली होने का संदेश देते हैं तो चिरंजीवी बुनियादी समस्याओं पर आधारित फिल्में करते हैं। उत्तर भारत में एकल सिनेमाघरों की स्थिति बेहद विषम है। फिल्म फेडरेशन के 2010 के आंकड़ों के अनुसार, तमिलनाडु में एकल सिनेमाघर 1546, केरल में 1046 और आंध्र प्रदेश में 2809 थे जबकि दिल्ली में 80, महाराष्ट्र में 504 और उत्तर प्रदेश में 970 थे। यही कारण है कि वहां गांव-गांव में सिनेमा और सितारे हैं। फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम के मुताबिक दक्षिण में इंडस्ट्री से राजनीति तक के सफर के पीछे सफलता का राज उनका जनता से जुड़ाव है। राजनीतिक विश्लेषक प्रदीप सिंह के मुताबिक वहां का कलाकार अपनी पार्टी बनाने का साहस रखता है, मुद्दे जानता है और जनता के बीच जाता है। यहां राज्यसभा सांसद होकर भी कलाकार मुखर नहीं हो पाते। सितारों को जमीन पर उतरना होगा, स्टारडम से निकलकर जमीन से जुड़ना होगा।
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