बराबरी का दर्जा देने की बात बेमानी नजर आती है-राजनीति में नही नजर आती गांवों से चुनी महिलाएं सोहना,(उमेश गुप्ता): ‘बेटी पढाओ-बेटी बचाओ’ अभियान की बात हो या नारी सशक्तिकरण की बात, सरकार ने महिला
ं को बराबरी का दर्जा देने के लिए योजनाएं क्रियान्वित की है पर असल में इन योजनाओं को धरातल पर सरकार की एजेंसी कितना अमलीजामा पहनाती है, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। गांवों में पढी-लिखी पंचायतें चुने जाने का सरकार का निर्णय आमजन को भले ही रास आ रहा हो पर गांवों में चुनी गई महिला जनप्रतिनिधियों के लिए ये पद महज दिखावा भर बनकर रह गया है। चौधर का ताज तो मिला पर चौधर उनके परिजनों के ही हाथ है। नाम और पहचान ना बताए जाने के आग्रह पर कई महिला प्रतिनिधियों ने बताया कि सरकार चाहे जो दावे करे, धरातल पर असलियत ये है कि गांवों में आज भी कही महिला प्रतिनिधि के पति ने तो कही उसके जेठ ने, कही ससुर ने कमान अपने हाथ में संभाली हुई है। चाहे कोई कार्य हो, चाहे किसी बैठक में जाना हो, उनके घर के पुरूष ही आवाजाही करते है। जिससे साफ है कि महिला जनप्रतिनिधियों को तो साइन करने तक सिमटा कर रख दिया गया है। कागजों में चाहे महिला सरपंच और मैंबर काम कर रहे है लेकिन असलियत में सारा कामकाज तो उनके परिजन ही करते नजर आते है। शासन व प्रशासन का रवैया भी महिलाओं के पक्ष में नही है। उनसे भी उपेक्षा ही मिल रही है। तवज्जो मिलने के नाम पर महज खानापूर्ति ही ज्यादा नजर आती है। ऐसे में महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने व नारी सशक्तिकरण के किए गए तमाम दावे हवा में उड़ गए है। सोहना क्षेत्र की काफी ग्राम पंचायतों में पढी-लिखी महिलाओं की चौधर है। काफी गांवों की सरपंच पद पर महिला काबिज है तो सोहना ब्लाक समिति के अध्यक्ष व उपाध्यक्ष पद पर भी महिला विराजमान है। इतना ही नही सोहना की नगरपरिषद की चेयरपर्सन बनने का गौरव भी महिला के नाम ही दर्ज हो गया है। जिलापरिषद के वार्ड एक व 3 समेत अन्य कई वार्डों से भी महिला ही प्रतिनिधित्व कर रही है। देखा जाए तो सोहना विधानसभा में महिलाओं का गांवों की राजनीति में पूरा दबदबा कायम है। पर एक सच्चाई ये भी है कि भले ही सरकार की ओर से महिलाओं को चौधर मिली हो पर हकीकत ये भी है कि आज भी वे घर की चौखट तक ही सिमट गई है। उनके लिए ये पद महज कागजों तक ही सिमट कर रह गए है। साइन तक ही उनकी जरूरत रह गई है। सोहना खंड की 45 पंचायतों में से करीब 25 पंचायतों की महिला सरपंच चुनी गई थी तो ब्लाक की अध्यक्ष व उपाध्यक्ष पद पर भी महिला ही काबिज है। इतना ही नही सोहना नगरपरिषद पर भी पढी-लिखी महिला को चेयरपर्सन चुना गया तथा इस क्षेत्र से दो महिला जिलापरिषद की जिलापरिषद सदस्य भी है। देखा जाए तो सोहना हलका में महिलाओं का राजनीति में पूरा दबदबा है लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि चुनी हुई महिलाओं में से चंद को छोडक़र काफी महिलाओं को महज कागजों तक ही सिमटा कर रख दिया है । आज भी वे इस आधुनिक जमाने में रबड स्टैंप ही बनकर रह गई है। उनकी जगह उनके परिजन ही गांवों की चौधर करते नजर आ रहे है। इसमें प्रशासन का भी पूरा हाथ है। अधिकारी भी महिलाओं को तव्वजो कम ही देते है। कागजी काम के लिए ही महिला प्रतिनिधियों को याद किया जाता है। जब भी कोई आयोजन होता है तो सरपंच पति अथवा उसके परिजन को सरपंच के नाम से संबोधित कर तवज्जो दी जाती है। जिससे जाहिर है कि महिलाओं को सरकार के प्रयासों के बावजूद अधिकारियों की अनदेखी व बरती जा रही लापरवाही से आज भी उन्हे वो अधिकार नही मिला, जिसकी वे हकदार है। बदलाव की बयार नजर नही आती। नारी सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के तमाम दावे-वादे बेमानी नजर आते है। पढी-लिखी महिलाओं को प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला पर इसे लोगों की रूढ़ीवादी विचारधारा माने या पुरूष प्रधान मानसिकता। जिससे आज भी गांव की चुनी गई महिला प्रतिनिधियों को खुले दिल से प्रतिनिधित्व करने का अवसर ही नही मिला। हालात ये है कि अधिकतर महिला पंच-सरपंचों को तो पता ही नही रहता कि गांव के लिए सरकार की योजनाएं क्या है? उनका दायित्व क्या है, पूछने पर महिला यही कहकर टरका देती है कि उनके घरवाले है राजनीति करने के लिए। वे तो अभी भी चूल्हा-चौका तक सिमटी है। सच्चाई भी यही है। विशेष बात ये है कि सरकार की ओर से कार्यरत विभाग के अधिकारी भी चुप्पी साध जाते है। सरकारी कार्यक्रमों में भी महिला जनप्रतिनिधियों की तो हाजिरी ना के बराबर ही रहती है। यहां तक कि कई बार महिला सरपंच की जगह उनके पति को ना केवन सरपंच बुलाकर संबोधित किया जाता है बल्कि पंचायत का सारा कामकाज उसका पति की देखरेख में ही हो रहा है। कई महिलाओं ने पहचान छुपाते हुए बताया कि उन्हे सरकार ने चुनावों में हिस्सेदारी देकर पुरूषों के मुकाबले बराबरी का दर्जा देने का प्रयास किया पर इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि अभी भी इस आधुनिक जमाने में चुनकर आई सभी महिलाओं को बराबरी का दर्जा नही मिला। सवाल ये है कि इसके लिए कौन दोषी है। शासन-प्रशासन या स्वयं चयनित महिलाएं। इस पर गहराई से विचार करना होगा। महिलाओं को भी खुद आगे आकर अपने अधिकार लेने होंगे। तभी वह सही रूप में अपने जनप्रतिनिधि होने और जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को अच्छे से निर्वाह कर पाएगी।
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