अभिनय से लेकर निर्देशन तक, महिलाओं ने फिल्म जगत में बनाई अपनी खास जगह

Khoji NCR
2022-03-04 12:32:56

प्रियंका सिंह व दीपेश पांडे, मुंबई। खुदी को कर बुलंद इतना... अभिनय, लेखन या निर्देशन ही नहीं, अब सिनेमा के हर क्षेत्र-विभाग में अपनी जगह मजबूत कर चुकी हैं महिलाएं। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अ

सर पर फिल्म इंडस्ट्री में महिलाओं के स्थान तथा स्वाभिमान के संघर्ष और आकांक्षाओं की पड़ताल की प्रियंका सिंह व दीपेश पांडेय ने ... महिलाओं की मौजूदगी कैमरा के पीछे स्वाधीनता के पहले तब शुरू हुई थी, जब फातिमा बेगम ने फिल्मों में काम करना शुरू किया। वह पहली निर्माता-निर्देशक मानी जाती हैं। यह वह दौर था, जब फिल्मों के लिए नायिकाएं नहीं मिलती थीं। पुरुष ही महिलाओं के कपड़े पहनकर फिल्मों में काम किया करते थे। फातिमा बेगम ने उर्दू थिएटर में नाम कमाने के बाद वर्ष 1922 में अर्देशिर ईरानी की फिल्म ‘वीर अभिमन्यु’ में मुख्य किरदार निभाया था। कुछ ही साल में उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी शुरू कर दी, जिसे पहले फातिमा फिल्म्स और फिर विक्टोरिया फातिमा फिल्म्स के नाम से जाना गया। उन्होंने साल 1926 में फिल्म ‘बुलबुल-ए-परिस्तान’ का निर्देशन भी किया। नर्गिस दत्त की मां जद्दनबाई पहली महिला संगीतकार थीं, उन्होंने ‘तलाश-ए-हक’ में संगीत दिया था। इस फिल्म का निर्माण करने के साथ ही उन्होंने फिल्म में अभिनय भी किया था। वहीं पहली महिला सिनेमेटोग्राफर के रूप में बी आर विजयलक्ष्मी का जिक्र होता है जो भारत की ही नहीं, बल्कि एशिया की पहली सिनेमेटोग्राफर रही हैं। उन्होंने वर्ष 1980 में कैमरा की कमान संभाली और अशोक कुमार अभिनीत तमिल फिल्म में बतौर असिस्टेंट शुरुआत की। इन सब में देविका रानी का जिक्र भला कैसे न हो। देविका ने कैमरे के सामने आकर दूसरी अभिनेत्रियों के लिए रास्ते खोले। गर्ममिजाज की होने के कारण उन्हें ड्रैगन लेडी भी कहा जाता था। उन्होंने भारतीय सिनेमा को वैश्विक स्तर पर ले जाने का काम किया। वर्ष 1936 में रिलीज हुई फिल्म ‘अछूत कन्या’ में देविका ने एक दलित लड़की का किरदार निभाया था। इस फिल्म के बाद उन्हें फस्र्ट लेडी आफ इंडियन स्क्रीन की उपाधि दी गई थी। उन्होंने अपने पति हिमांशु राय के साथ मिलकर बाम्बे टाकीज स्टूडियो शुरू किया। अभिनेता दिलीप कुमार को फिल्म इंडस्ट्री में लाने का श्रेय देविका रानी को ही जाता है। इसके बाद नर्गिस दत्त, हेमामालिनी, वहीदा रहमान, शर्मिला टैगोर समेत कई ऐसी अभिनेत्रियां रहीं, जिन्होंने महिला प्रधान फिल्मों में काम करने की हिम्मत उस दौर में दिखाई, जब बाक्स पर हीरो का बोलबाला हुआ करता था। बराबरी का दर्जा मिलने पर मौके बढ़ेंगे: निर्देशन में महिलाओं की मौजदूगी को लेकर ‘तलाश’ और ‘गोल्ड’ जैसी फिल्मों की निर्देशक रीमा कागती कहती हैं कि जब मेरी फिल्म ‘हनीमून ट्रैवेल्स प्राइवेट लिमिटेड’ रिलीज हुई थी, तब एक महिला पत्रकार ने मुझे कई बार महिला निर्देशकों के बारे में बात करने के लिए काल किया था। मैंने उन्हें कहा कि आप किसी और से क्यों नहीं बात कर लेती हैं। तब उनका जवाब था कि मेघना गुलजार विदेश गई हैं और फराह खान मेरा काल नहीं ले रही हैं। उस वक्त ज्यादा महिला निर्देशक नहीं थीं। अब कैमरे के पीछे, तकनीशियंस, निर्माण, लाइटिंग डिपार्टमेंट में लड़कियां आ रही हैं। आने वाले दिनों में यह संख्या तभी बढ़ेगी, जब माता-पिता अपनी बेटियों को बराबरी के मौके उपलब्ध कराएंगे। महिला केंद्रित फिल्मों का मार्केट बहुत बड़ा नहीं है, लेकिन अब ‘राजी’, ‘वीरे दी वेडिंग’ जैसी फिल्मों से बदलाव आ रहा है। जेंडर में बंधी नहीं होती हैं कहानियां ‘विकी डोनर’ और ‘पीकू’ जैसी आउट आफ द बाक्स कहानियां लिख चुकी लेखिका जूही चतुर्वेदी कहती हैं कि चाहे कहानी कोई पुरुष लिखे या महिला, मुझे नहीं लगता है कि किसी कहानी को अपनाने के लिए यह प्वाइंट होना चाहिए। आप कहानी को पढ़िए, फिर जज करिए। पुरुष लेखक जितने अच्छे महिलाओं के किरदार लिख सकता है, महिला लेखक भी उतने ही अच्छे पुरुषों के किरदार लिख सकती है। जेंडर से क्या फर्क पड़ता है? निर्माता-निर्देशक भी समझदार हो गए हैं। उनके लिए कहानी से बढ़कर कुछ नहीं होता है। लेखक का संवेदनशील होना ही काफी है। कहानी भी जेंडर में बंधी हुई नहीं होती है। हमारा परिपक्व परिवार इसमें रहने वाले भाई-बहन, माता-पिता सबसे मिलकर बना है। हर किरदार को उतनी ही सच्चाई से लिखना जरूरी है। 80 की उम्र तक काम करती रहूंगी कोरियोग्राफर और निर्देशक फराह खान ने फिल्म इंडस्ट्री को दीपिका पादुकोण जैसी अभिनेत्री दी है। उन्होंने कई गानों की कोरियोग्राफी करने के साथ ही ‘ओम शांति ओम’ और ‘मैं हूं ना’ फिल्मों का निर्देशन भी किया है। फराह खान कहती हैं कि अगले साल इस इंडस्ट्री में मुझे काम करते हुए 30 साल हो जाएंगे। मैं अब भी प्रासंगिक हूं। लोग चाहते हैं कि मैं फिल्में बनाऊं। मैं एक्ट्रेस नहीं थी, जिसे उम्र में बांधा जा सके। अब तो माधुरी दीक्षित, शिल्पा शेट्टी, काजोल, तब्बू जैसी अभिनेत्रियां फिर से काम कर रही हैं। अब डिजिटल प्लेटफार्म ने पूरा गेम ही बदल दिया है। कंटेंट की वजह से हर किसी के पास काम है। मैं तकनीशियन हूं, 80 की उम्र तक काम करूंगी। हर दिन मैं कुछ नया करना चाहती हूं। स्टंट के पीछे विज्ञान: एक्शन करना, बाइक्स दौड़ाना, ऊंचाई से छलांग लगाना, स्टंट सीन डिजाइन करना पहले पुरुषों का अधिकार क्षेत्र माना जाता था, लेकिन कई स्टंट वूमंस ने इस क्षेत्र में दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। ‘द एम्पायर’ में पानी में 30 फीट अंदर तक जाकर शूटिंग या ‘गहराइयां’ फिल्म में पानी में छलांग लगाने वाले दृश्य को स्टंट वूमन सनोबर पार्डीवाला ने बखूबी डिजाइन किया है। वह कहती हैं कि स्टंट का लिंग से कोई लेना-देना नहीं है। यह काम साइंस और फिटनेस से जुड़ा हुआ है। शारीरिक तौर पर वह स्टंट कितना संभव है, कहां केबल का काम है, कितनी हाइट से एक्टर को गिराएंगे तो क्लोजअप शाट मिलेगा, इन बातों की समझ अगर नहीं है तो एक्सीडेंट्स हो सकते हैं। करियर के शुरुआती दौर में एक स्टंट सीन में मुझे एक रैंप पर बाइक चलाकर कूदना था। लैंडिंग के लिए 15 फीट की ही जगह थी। मेरे मुताबिक रैंप छोटा था। मैंने एक्शन निर्देशक से निवेदन किया की रैंप की लंबाई बढ़ा दो, कैमरा को लो एंगल से शूट करो, शाट मिल जाएगा और चोट नहीं लगेगी। एक्शन डायरेक्टर ने कहा कि आप 16 साल की हैं, मेरा अनुभव 16 साल का है, स्टंट नहीं करना है तो जाओ। लड़के को लड़की का कास्ट्यूम पहनाकर वह सीन शुरू हुआ। वह लड़का कैमरे को तोड़ते हुए आगे निकल गया, उसे चोट लगी। तब फिल्म के निर्देशक ने कहा कि आप सही कह रही थीं। इस करियर में जो लड़कियां आना चाहती हैं, उनसे मैं यही कहना चाहूंगी कि दूसरा करियर विकल्प तैयार रखें। साधारण चोट भी इस काम से दूर कर सकती है। स्टंट का काम हमेशा नहींमिलता। मैं फिटनेस ट्रेनर और इंटीरियर डिजाइनर भी हूं। बिजनेस की अच्छी समझ: घर का हिसाब-किताब संभालने वाली महिलाएं, एक फिल्म का बजट भी उतनी ही अच्छी तरह से संभाल सकती हैं, जितना कि कोई पुरुष निर्माता संभाल सकता है। इंडस्ट्री में एकता कपूर, दीया मिर्जा, गुनीत मोंगा, अनुष्का शर्मा, दीपिका पादुकोण, प्रियंका चोपड़ा, कंगना रनोट, रिचा चड्ढा, लारा दत्ता समेत कई महिला निर्माता हैं। लारा ने जब वर्ष 2011 में ‘चलो दिल्ली’ फिल्म का निर्माण किया था, तब उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया था। लारा कहती हैं कि तब बतौर निर्माता खुद को स्थापित करना, बड़े प्रोडक्शन हाउसेस के साथ मीटिंग्स करना, आइडिया पर बातचीत करना मुश्किल था। वे मुझे एक अभिनेत्री से आगे देख ही नहीं पा रहे थे। जहां बिजनेस की बात होती है, वहां पुरुषों को लगता है कि उन्हें ज्यादा जानकारी है। वह भूल जाते हैं कि हम बिना किसी होमवर्क के निर्माता नहीं बने हैं। अब वह जमाना धीरे-धीरे जा रहा है, जहां लोग सोचते थे कि महिला है तो सिर्फ एक्टिंग और कास्टूयम जैसी चीजें देख सकती है। आज बतौर निर्माता मेरी एक पहचान है। लोग बिजनेस से जुड़े विचार-विमर्श के लिए मुझे स्वीकार करते हैं। फिल्म ‘गल्र्स विल बी गल्र्स’ से निर्माता बनी रिचा चड्ढा सेट पर महिलाओं का क्रू रखना चाहती हैं। बकौल रिचा, हम कोशिश कर रहे हैं कि सारे डिपार्टमेंट्स की हेड्स महिलाएं हों। हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कुछ पारंपरिक जाब्स हैं, जिनमें पुरुषों का कब्जा है। मैं चाहती हूं कि नए लोग, नए आइडियाज लेकर आएं, जिन्हें मैं आगे बढ़ा सकूं। कैमरामैन से कैमरापर्सन का सफर युद्ध पर आधारित फिल्म ‘पिप्पा’ और अक्षय कुमार अभिनीत फिल्म ‘एयरलिफ्ट’ को अपने कैमरे में कैद कर चुकीं सिनेमेटोग्राफर प्रिया सेठ कहती हैं कि जब मैंने काम करना शुरू किया था, तब इस क्षेत्र में दो-तीन लड़कियां ही थीं। आज यह संख्या 100 से अधिक है। फिर भी महिला सिनेमेटोग्राफर को मुख्यधारा वाली फिल्मों में मौके उतनी आसानी से नहीं मिलते हैं, जितने पुरुषों को मिल जाते हैं। ‘एयरलिफ्ट’ की सफलता के बाद भी मुझे काम के लिए बहुत काल्स नहीं आए थे, लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी लड़ते रहना महिलाओं को आता है। ‘बंटी और बबली’ में कैमरा टीम का हिस्सा रहीं रेश्मि सरकार कहती हैं कि अब सिनेमेटोग्राफर शब्द कामन हो गया है, पहले कैमरामैन कहा जाता था। कैमरापर्सन या डायरेक्टर आफ फोटोग्राफी कहलाने में वक्त लगा। कैमरा लड़कों के लिए जितना भारी है, उतना ही हमारे लिए भी है, लेकिन उसके आधार पर कमजोर समझना गलत है।

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