नई दिल्ली, कोविड-19 (COVID-19) वायरस का नया वैरिएंट ओमिक्रोन एक बार फिर पूरी दुनिया के लिए नई मुश्किल बन चुका है। लेकिन अगर आप किसी ऐसे शहर में रहते हैं, जहां वायु प्रदूषण बहुत अधिक है, तो कोरोना वायरस क
े चलते आपको अधिक परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। अमेरिकन जनरल ऑफ रेसिपिटिरी एंड क्रिटिकल केयर मेडिसिन में छपी एक रिसर्च रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि जिन इलाकों में वायु प्रदूषण बहुत ज्यादा है, वहां रहने वाले लोगों को अगर कोरोना वायरस का संक्रमण होता है, तो साफ हवा में रहने वाले लोगों की तुलना में उनकी स्थिति ज्यादा खराब हो जाती है। ऐसे लोगों को जल्द से जल्द आईसीयू में रखना पड़ सकता है। माउंट सिनाई स्कूल ऑफ मेडिसिन के वैज्ञानिकों की ओर से किए गए अध्ययन में पाया गया कि ज्यादा वायु प्रदूषण वाले इलाकों में रहने वाले लोगों में कोरोना संक्रमण का खतरा अधिक होता है। साथ ही हवा में मौजूद पार्टिकुलेट मैटर के चलते मरीज की स्थिति बेहद खराब हो जाती है और आईसीयू में रखना पड़ सकता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक, वायु प्रदूषण के चलते लोगों का पल्मोनरी इम्युनिटी सिस्टम कमजोर हो जाता है। इसके चलते कार्डियोवास्कुलर बीमारियां और मेटाबॉलिक सिंड्रोम का खतरा बढ़ जाता है। वहीं अध्ययन में पाया गया कि कोविड-19 संक्रमण के चलते मोटापे, मधुमेह या अन्य बीमारियों से पीड़ित लोगों में मौत का खतरा अधिक होता है। वैज्ञानिकों ने कहा- प्रदूषण कम करने के लिए तुरंत हो काम वैज्ञानिकों ने कोविड महामारी से साफ हवा और बेहतर पर्यावरण के संबंध के बारे में इस शोध में बताया है। रिसर्च में पाया गया कि साफ हवा वाले इलाकों की तुलना में प्रदूषित हवा वाले इलाकों में लोगों के बीमार होने और वहां लोगों की मृत्युदर ज्यादा थी। रिसर्च में शामिल आइकन स्कूल ऑफ मेडिसिन, माउंट सिनाई के शोधकर्ता एलिसन ली ने बताया कि कोरोना महामारी के इस दौर में साफ हवा और बेहतर पर्यावरण लोगों की जान बचाने में काफी मददगार साबित हो सकती है। उन्होंने कहा कि वायु प्रदूषण को कम करने की नीतियों को एक आवश्यक सार्वजनिक स्वास्थ्य उपाय माना जाना चाहिए। इस आधार पर हुआ अध्ययन इस अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने न्यूयॉर्क के अलग-अलग सात अस्पतालों में भर्ती कोरोना के लगभग 6,500 मरीजों पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने मरीज के भर्ती होने के समय उनके घर के आसपास के इलाके में पार्टिकुलेट मैटर, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और ब्लैक कार्बन सहित प्रदूषक तत्वों के स्तर का पता लगाया। इसके बाद मरीजों की मृत्यु दर, आईसीयू की जरूरत और बीमारी के स्तर के आंकड़े जुटाए। उन्होंने पाया कि प्रदूषण के मानक स्तर के नीचे के इलाके में रहने वाले लोगों में मौत का खतरा 11 प्रतिशत ज्यादा था और ऐसे लोगों में आईसीयू की जरूरत सामान्य मरीजों की तुलना में 13 प्रतिशत ज्यादा थी। सवाल- क्या वायु प्रदूषण कोरोना की मुश्किल को और बढ़ा सकता है? जवाब- बिलकुल, वायु प्रदूषण का दीर्घकालिक प्रभाव का श्वसन तंत्र और शरीर के अन्य अंगों पर होने वाले प्रभाव का आकलन किया जा चुका है और यह बात साबित भी हो चुकी है। यह बात स्पष्ट है कि वायु प्रदूषण कोरोना की मुश्किल को और बढ़ा देता है। दुनिया भर में कई ऐसी जगहों पर जो लोग रहते हैं, उनका रेस्पिरेटरी सिस्टम यानी सांस लेने की प्रणाली पहले ही प्रदूषण की वजह से कमजोर होती है। अब ऐसे लोगों को अगर कोरोना वायरस ने जकड़ लिया तो उनके फेफड़ों की हालत तो खराब हो ही जाएगी। सवाल- फेफड़ों की बीमारी, हाई बीपी वालों के लिए कोरोना और प्रदूषण का साथ-साथ होना कितना खतरनाक है? जवाब- जिन लोगों को डायबिटीज, फेफड़ों की बीमारी और हाई बीपी है उनके लिए कोरोना अधिक खतरनाक होता है। जिन्हें ये बीमारी हो, प्रदूषण के दौरान उनकी दिक्कत बढ़ सकती है। क्योंकि जिन लोगों को ये बीमारियां हैं उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता घटेगी इससे कोरोना बढ़ेगा। प्रदूषण से कोरोना की स्थिति होती है अधिक खराब इस बात को आल इंडिया मेडिकल साइंस के डा. अमरिंदर सिंह मलाही भी कहते हैं कि प्रदूषण बढ़ेगा तो कोरोना के बढ़ने के आसार अधिक होता है। जो लोग पहले से फेफड़ों या श्वसन तंत्र की बीमारी से पीड़ित हैं, उनके फेफड़े कम काम कर रहे हैं, उन्हें इस समय कोरोना हो गया, तो उसकी गंभीरता बढ़ जाएगी। फेफड़ों को अधिक नुकसान पहुंचेगा। मलाही कहते हैं कि कई वैज्ञानिक इस बात की पुष्टि करते हैं कि सर्दी के मौसम में कोरोना अधिक घातक होता है। इस मौसम में लोगों को कोल्ड या फ्लू की समस्या भी हो जाती है। ऐसे लोग जब बाहरी या संक्रामक वातावरण के संपर्क में आते हैं, तो इम्युनिटी कमजोर होने की वजह से वह कोरोना के शिकार जल्दी हो जाते हैं। वहीं एम्स के डा. नीरज निश्चल का कहना है कि प्रदूषण व कोरोना का मिलाप जानलेवा है। दरअसल, प्रदूषण सांस की नली, प्रतिरोधक क्षमता और फेफड़े को प्रभावित करता है। ऐसे में कोरोना का संक्रमण हो जो बीमारी की गंभीरता बढ़ जाती है। प्रदूषण का दीर्घकालिक असर ज्यादा खतरनाक हो सकता है। क्योंकि अधिक समय तक खराब हवा में ही सांस लेते रहे तो फेफड़े खराब होंगे। प्रदूषण के दौरान वातावरण में मौजूद सूक्ष्म कण सांस के जरिये फफड़े व ब्लड में पहुंचकर शरीर के हर हिस्से को प्रभावित करते हैं। इससे फेफड़े की गंभीर बीमारी तो होगी ही, दिल व न्यूरो की गंभीर बीमारियां भी बढ़ सकती है। जरूर लगाएं मास्क एलएलनजेपी के एमडी डा. सुरेश कुमार का कहना है कि जब हवा प्रदूषित होती है, तो कोरोना वायरस संक्रमण सहित सभी वायरस लंबे समय तक वातावरण में रहते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, 3 लेयर मास्क प्रदूषित हवा में 65-95 फीसद कणों को कम करते हैं। ऐसे में लोगों को मास्क जरूर लगाना चाहिए। उनका कहना है कि ये मास्क लगाने से आप खुद तो वायरस से बचते ही हैं, साथ में आप दूसरों को भी बचाते हैं। फेफड़ों को कमजोर करता है कोरोना और प्रदूषण सेंटर फॉर साइंस के वैज्ञानिक विवेक चट्टोपध्याय कहते हैं कि वायु प्रदुषण इंसानों के लिए बेहद घातक है। भारत सरकार या विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) वायु प्रदूषण के मानक इसी आधार पर तैयार करते हैं कि आम लोगों की सेहत पर असर न हो। वायु प्रदूषण में इतने छोटे पार्टिकल होते हैं, जो सांस के जरिये खून तक पहुंच जाते हैं। यह सेहत को नुकसान पहुंचाते हैं। फेफड़ों को क्षति पहुंचने और कमजोर होने से कोरोना में मुश्किल और बढ़ जाती है। दिल्ली मेडिकल काउंसिल के साइंटिफिक कमेटी के चैयरमेन नरेंद्र सैनी कहते हैं कि ज्यादा वायु प्रदूषण वाले इलाकों में रहने वाले लोगों के फेफड़ों को नुकसान पहुंचाता है। कोविड का वायरस भी फेफड़ों को ही नुकसान पहुंचाता है। ऐसे में मरीज की मुश्किल बढ़ जाती है। ऑक्सीजन या वेंटिलेटर का भी उतना फायदा वायु प्रदूषण में रहने वाले मरीजों को नहीं मिलता जितना साफ हवा मे रहने वाले मरीजों को मिलता है। जो लोग ज्यादा प्रदूषण वाले इलाकों में रहते हैं, वह अगर साफ हवा वाले इलाके में रहने जाए और सांस से जुड़े व्यायाम करें तो कुछ समय मे उनके फेफड़े फिर से ठीक काम करने लगते हैं। बार्सिलोना इंस्टीट्यूट आफ ग्लोबल हेल्थ से जुड़े और अध्ययन के प्रथम लेखक मनोलिस कोगेविनास ने ई-मेल के द्वारा बताया कि महामारी से पहले जिन क्षेत्रों में वायु प्रदूषण का स्तर ज्यादा था, उनमें कोरोना के मामले अधिक आए। उनका मानना है कि वायु प्रदूषण वायरस के प्रसार में मददगार हो सकता है। यह व्यक्ति विशेष की बीमारी या संक्रमण के प्रति संवेदनशीलता को भी बढ़ा सकता है। उन्होंने कहा कि समस्या यह है कि पहले के अध्ययन उन मामलों पर आधारित थे, जिनका जांच के जरिए पता चला था, लेकिन लक्षण न दिखने वाले और जांच नहीं करवाने वाले मामलों का उसमें उल्लेख नहीं था। जहां प्रदूषण ज्यादा वहां कोरोना से मौत अधिक हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के अध्ययन में भी सामने आया था जिन इलाकों में प्रदूषण ज्यादा था, वहां पर कोरोना से मौतें भी ज्यादा हुईं। जहां प्रदूषण कम मात्रा में था, वहां पर संक्रमण भी कम फैला और मौत का आंकड़ा भी कम रहा। यह दावा अमेरिका की देशव्यापी स्टडी में किया गया है। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी ने स्टडी के दौरान अमेरिका की 3080 काउंटी का विश्लेषण किया था। स्टडी में कहा गया था कि अगर मैनहट्टन अपने औसत प्रदूषण कणों को पिछले बीस साल में एक माइक्रोग्राम प्रति क्यूबिक मीटर भी कम कर देता तो शायद हमें 248 मौतें कम देखने को मिलती। लंबी अवधि तक प्रदूषण का सामना करने से खतरा ज्यादा हार्वर्ड डाटा साइंस इनिशिएटिव के डायरेक्टर और स्टडी के लेखक फ्रांसेस्का डोमिनिकी के मुताबिक, कोई शख्स 15-20 साल तक ज्यादा प्रदूषण झेलता रहा है तो कम प्रदूषित जगह पर रहने वाले की तुलना में कोरोना से उसकी मौत की आशंका 15% ज्यादा रहेगी। इटली में कोरोना से ज्यादा मौतों को भी प्रदूषण से जोड़कर देखा जा रहा है। दिल्ली का प्रदूषण जानलेवा सेंट्रल ब्यूरो ऑफ हेल्थ इंटेलिजेंस रिपोर्ट की मानें तो प्रदूषण को लेकर देश में हालात चिंताजनक बने हुए हैं। दिल्ली और हरियाणा और उससे सटे प्रदेशों की हालत खराब है। रिपोर्ट में बताया गया है कि दिल्ली, हरियाणा और उत्तराखंड में सांस की बीमारी से हुई मौतों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। दिल्ली में वर्ष 2016 से 2018 के बीच सांस की बीमारी से मौतों की संख्या में तीन गुना वृद्धि हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, कुल मौतों में 68.47 फीसदी हिस्सा एयर पॉल्यूशन से होने वाली मौतों का है। दिल्ली में नौ साल से ज्यादा कम हो सकती है उम्र शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के अनुसार भारत की एक चौथाई आबादी प्रदूषण के जिस स्तर का सामना कर रही है वैसा कोई अन्य मुल्क नहीं कर रहा। हालांकि, बीते कुछ सालों में सुधार हुए है जिसे त्वरित गति देने की आवश्यकता है। रिपोर्ट कहती है कि प्रदूषण के खौफनाक असर की वजह से देश के कई हिस्सों में लोगों की उम्र नौ साल तक हो सकती है। प्रदूषण घटा देती है उम्र शिकागो विश्वविद्यालय के एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स के निदेशक केन ली ई-मेल पर कहते हैं कि हमने कुछ समय पहले एक रिपोर्ट जारी की थी कि अगर प्रदूषण ऐसा ही रहा तो दिल्ली में 9.7 साल तक उम्र कम हो जाएगी। रिपोर्ट कहती है कि दक्षिण एशिया में एक्यूएलआई आंकड़ा बताता है कि अगर प्रदूषण को डब्लूएचओ निर्देशावली के अनुसार, घटा दिया जाए तो औसत व्यक्ति की आयु 5 वर्ष से अधिक बढ़ जाएगी। स्वच्छ वायु नीतियों का फायदा उत्तर भारत जैसे प्रदूषण के हॉटस्पॉट्स वाले क्षेत्रों में कहीं अधिक है जहां 480 मिलियन लोग जिस वायु में सांस लेते हैं, उसका प्रदूषण स्तर विश्व के किसी भी इलाके प्रदूषण स्तर से दस गुना अधिक है। वह कहते हैं कि हमने कोरोना और प्रदूषण को लेकर कोई अध्ययन तो नहीं किया, लेकिन कई स्टडी इस बात को प्रमाणित जरूर करती है। रिपोर्ट के अनुसार, उत्तर प्रदेश में खराब प्रदूषण 9.5 वर्ष आयु कम हो जाएगी। बिहार में जहां इसकी वजह से 8.8 साल आयु कम हो सकती है, तो हरियाणा और झारखंड में लोगों की आयु पर क्रमश: 8.4 साल और 7.3 साल तक असर पड़ सकता है।
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