रोजगार सृजन आधारित विकास की जरूरत लोकलुभावन व्यवस्था से बढ़ना होगा आगे

Khoji NCR
2020-12-18 10:02:22

संतुलित और न्यायसंगत विकास एक उत्प्रेरक के समान है, जो किसी प्रगतिशील पारिस्थितिकी यानी लोकतंत्र और शासन के तहत अवसर का एक समृद्ध चक्र सृजित करता है। यह मांग पैदा करता है, नौकरियों और रोजगार

े अवसरों को बढ़ाता है, उम्मीदों को प्रेरित करता है और उद्यमशीलता में विश्वास पैदा करते हुए निवेश को बढ़ावा देता है। साथ ही यह संबंधित पारिस्थितिकी को समग्रता में प्रोत्साहित करता है। इतना ही नहीं, मानव विकास में तेजी लाने के साथ ही यह उसकी समग्र प्रगति का कारक बनता है, जिससे नागरिक कल्याण के अधिकतम लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। विकास की दर बहुत मायने रखती है, इसलिए यह एक आदर्श प्रतिमान है। विकास की समान दर परिस्थितियों के आधार पर मानव विकास की प्रमुख अनिवार्यताओं और व्यापक संकेतकों पर बहुत अलग प्रभाव डाल सकती है। संतुलित विकास को सामाजिक गतिशीलता, समान अवसरों, बेहतर स्वास्थ्य, समावेश, स्थिरता, कल्याण आदि के रूप में देखा जा सकता है। सतत प्रक्रिया है आíथक विकास : हमें यह समझना होगा कि आíथक विकास एक सतत प्रक्रिया है, घटना नहीं। अक्सर नीति निर्माता सुधार की योजनाएं बनाते समय इसे भूल जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अक्सर यह कहते हैं कि आत्मनिर्भर भारत और मेक इन इंडिया के बारे में जारी किए गए अनेक दिशा-निर्देशों के परिणामस्वरूप विकासात्मक नीतियों का असर धरातल पर भी दिखना चाहिए। दरअसल वास्तविकता यह है कि धरातल पर इन्हें कहीं अधिक जटिल चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। इतिहास बनाने में लगता है लंबा वक्त : यह सही है कि विकास किसी भी देश को गरीबी से बाहर निकलने में मदद करता है और अर्थव्यवस्था को गति प्रदान करता है। यहां तक कि तेजी से और निरंतर विकास गरीबी को कम करने और गतिशीलता को सक्षम बनाने का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण है। इस संबंध में किए गए एक हालिया अध्ययन में यह अनुमान लगाया गया है कि आय में 10 प्रतिशत की वृद्धि गरीबी दर को लगभग 25 प्रतिशत तक कम कर देती है। यह व्यापक और समग्र विकास को गति प्रदान करती है तथा स्वास्थ्य व खुशहाली जैसे अन्य सतत विकास संकेतकों को भी बढ़ावा देती है। इस अध्ययन रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि औसत विकसित राज्यों, विशेष रूप से उत्तरी भारत में, आय के स्तर में एक प्रतिशत की वृद्धि के परिणामस्वरूप गरीबी में बहुत कम असमानता के साथ 4.5 प्रतिशत की गिरावट आ सकती है। इस अध्ययन से यह भी पता चलता है कि आय में असमानता के प्रारंभिक स्तर गरीबी कम करने में प्रभावशाली होने के साथ ही समान रूप से उसके प्रभाव में वृद्धि के संदर्भ में किस तरह की भूमिका निभा सकते हैं। स्थायी नहीं है असमानता : विकास दर में यदि निरंतर उच्च वृद्धि कायम रहे तो असमानता नुकसानदायक नहीं हो सकती है। अधिकांश लोग निश्चित रूप से इस बात की सराहना करेंगे कि उच्च दर के साथ बढ़ते आíथक परिवेश में यह जरूरी नहीं है कि वंचितों को लाभ न हो, यह सिर्फ इतना भर है कि वे लंबे समय तक प्रगति और बेहतर शुरुआत वाले लोगों की तुलना में कम लाभ उठा पाते हैं। इसी तरह एक व्यापक धारणा के विपरीत, यह जरूरी नहीं कि तेज वृद्धि से असमानता भी बढ़े। हालांकि विकास और असमानता के बीच एक औपचारिक संबंध होने से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता है, लेकिन असमानता और आय में परिवर्तन के बीच कोई सुसंगत संबंध भी नहीं है। गरीबों को सामथ्र्यवान बनाता रोजगार : कुछ राष्ट्र क्यों विफल होते हैं? और अन्य क्यों सफल होते हैं? इतिहास में हमारे नीति निर्माताओं के लिए कई सबक छिपे हुए हैं। नेतृत्व, शासन और वास्तविक मजबूती तथा योजनाओं व नीतियों का प्रारूप तैयार करने एवं उन्हें लागू करने की संस्थानों की क्षमता इस संबंध में सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक है। भारत-पाकिस्तान या अमेरिका-मैक्सिको सीमा के दोनों किनारे असमान रूप से क्यों विकसित हुए हैं, यह सवाल कुछ इसी तरह से है कि क्यों सीमावर्ती राज्यों ओडिशा और आंध्र प्रदेश को समान प्राकृतिक संसाधन प्राप्त होने व एक ही भौगोलिक स्थिति में अवस्थित होने तथा दोनों को विरासत में समान चीजें मिलने के बावजूद उनका विकास एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत हुआ है। इसी तरह, तेलंगाना राज्य सॉफ्टवेयर गढ़ के रूप में क्यों विकसित हुआ। हाल ही में देश के 14 राज्यों में लगभग 44,000 लोगों के बीच बिल्कुल इन्हीं सवालों को लेकर एक विस्तृत अध्ययन किया गया। इस अध्ययन में तुलनात्मक विश्लेषण और केस स्टडी के संयोजन का उपयोग किया गया था, ताकि यह पता लगाया जा सके कि समान संघीय आर्थिक नीतियों तथा समान ऐतिहासिक पृष्ठभूमि वाले राज्यों में निर्यात, रोजगार सृजन और व्यवसाय को विकसित होने देने के लिए औपचारिक रूप से अनुकूल परिवेश उपलब्ध कराने के साथ ही विकास के कई मापदंडों में बिल्कुल विपरीत परिणाम क्यों देखने को मिलते हैं। यह भी सामने आया है कि राजनीतिक-आíथक ताकतें परिणामों के निर्धारण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। यद्यपि लगभग हर उदाहरण में आíथक सुधार ने एक प्रारंभिक सकारात्मक प्रतिक्रिया सृजित की है, इसे किस स्तर पर स्थिर रखा जाए इसका निर्धारण इस बात से किया गया था कि नीति निर्माता महत्वपूर्ण और त्वरित सुधार लाने में किस हद तक सक्षम थे। स्थानीय स्तर पर क्षमता और व्यापक नेतृत्व के परिणाम के तौर पर व्यवसाय करने में सहजता ही अंतर पैदा करती है। अध्ययन का एक प्रमुख पहलू अर्थव्यवस्था के औपचारिकीकरण पर केंद्रित है, जो अल्पावधि में लघु आकार के व्यवसाय का विरोधी होने के साथ ही दीर्घ आकार का समर्थक है और गरीबों के हितों के विपरीत प्रतीत होता है। देखा जाए तो नीतियां बनाना तथा उनके जरिये सुधारों को धरातल पर कार्यान्वित करना विकास का एक प्रमुख निर्धारक होता है। ग्रोथ यानी वृद्धि से विकास का लाभ सभी तक पहुंचता है। पहले से ही बेहतर को और फायदा पहुंचाने का भी एक लाभ यह होता है कि इसका असर उसके बाद की पंक्तियों में शामिल लोगों तक पहुंचता है। लिहाजा जिनके पास कम संसाधन हैं, उनके पास इसकी मात्र बढ़ती है। इस प्रकार से यह गरीबी उन्मूलन का आधार होता है। इतिहास, अंतर्दृष्टि और एक सामान्य अवलोकन हमें यह बताता है कि आर्थिक विकास ही सामाजिक आर्थिक पिरामिड की उन्नति के दीर्घकालिक लक्ष्य का सबसे शक्तिशाली साधन है और इसी से जीवन की गुणवत्ता में सुधार होता है। इसमें सामाजिक समरसता, पारिस्थितिकी संतुलन और वैचारिक ढांचा, सुरक्षा व न्याय आदि शामिल हैं। इस सामाजिक आर्थिक पारिस्थितिकी तंत्र में सर्वाधिक प्रासंगिक और सबसे बड़ा सच यही है कि एक खास वर्ग विकास के लाभों से काफी हद तक वंचित रहा है। लिहाजा उस वर्ग को कैसे लाभ हो, इस बारे में भी विचार करना चाहिए बीते कुछ वर्षो से हम किसानों की आय को दोगुना करने की बात कर रहे हैं। हालांकि कृषि में हमारी कम वृद्धि दर ने खासकर सुधार पूर्व की अवधि में दो पीढ़ियों को इस कार्य से लगभग बाहर कर दिया है। इतना ही नहीं, आशंका इस बात की भी प्रबल है कि भविष्य में कम से कम एक पीढ़ी और भी इस कार्य से वंचित रह सकती है। वर्तमान संदर्भ में हमें समझना होगा कि आर्थिक विकास रोजगार पैदा करने के साथ ही लोगों को वित्तीय स्थिरता प्रदान करता है। साथ यह गरीबों को ताकत और सबसे अधिक महत्वपूर्ण उन्हें गरिमा प्रदान करता है। पहले राजा-महाराजा और फिर उपनिवेशवादी हमें वंचित दशा में छोड़ गए थे। हमने अपनी आर्थिक नीतियों को बड़े पैमाने पर गरीबी उन्मूलन के उद्देश्य से शुरू किया। दुर्भाग्यवश, कल्याण के लिए लोकलुभावन मार्ग यानी पुनर्वितरण में दिशाहीन घूमते रहे और विकास की कीमत पर समाजवाद की एक पीढ़ी को खो दिया है। पिछली शताब्दी के हमारे नीति निर्माताओं और उदारीकरण से पहले के सुधारकर्ताओं ने उत्पादक आर्थिक गतिविधियों के निर्माण को हतोत्साहित करने वाली पारिस्थितिकी को स्थापित और प्रोत्साहित किया था। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उस स्तर तक हमारे ऊपर टैक्स लगा दिया, जिसमें ईमानदार को उत्पादन करने पर कोई प्रोत्साहन नहीं था और बेईमान को बच निकलने का पूरा प्रोत्साहन दिया गया था। साथ ही उस दौर में नवाचार को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया और प्रतिभा पलायन को रोकने पर ध्यान नहीं दिया गया। विकास अर्थशास्त्र को समझने वाले विकास की कमजोरी के विचार को समझ सकते हैं। उल्लेखनीय है कि कमजोर अर्थव्यवस्था के वृहद आर्थिक परिणामों की पहचान और उनका अनुभव एक निश्चित समयावधि के बाद ही किया जा सकता है। जहां एक आदमी पूरे वर्ष महज किसी एक ही उम्मीद में जीता है तो वहीं दूसरा अपनी अन्य पूंजी के सहारे। तर्कसंगत व्यवहार यही लगता है कि कम उपभोग करें, अपने कठिन समय के लिए अधिक बचत करें, लेकिन इस विचार व व्यवहार से अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। इस विचार के परिणामस्वरूप खपत में गिरावट आती है, लिहाजा मांग कम हो जाती है, जिससे निवेश का चक्र प्रभावित होता है। अर्थव्यवस्था में लंबे समय तक ऐसी स्थिति कायम रहने से उसे व्यापक नुकसान पहुंचता है, उसमें घातक स्तर तक गिरावट होती है, तथा इस दशा से उबरने में कई बार उसे कई वर्ष तक लग जाते हैं। इससे देश प्रतिस्पर्धा में भी काफी पीछे रह जाता है। राजनीतिक गलियारे के दोनों तरफ के लोगों को यह महसूस करना चाहिए कि आर्थिक विकास में टोकरी का विस्तार सभी के लिए एक सार्थक तथा टिकाऊ हिस्सा है और यह ज्यादातर लोगों को आत्मनिर्भर बनाता है। हमारे नीति निर्माताओं को तेजी से विकास पर ध्यान देना चाहिए। देखा गया है कि विकास के अभाव में ही आम जनता और राजनेता सदैव इस बात पर लड़ते हैं कि समोसे का सबसे बड़ा टुकड़ा किसे मिलेगा। ऐसे में हमारे प्रधानमंत्री को सामाजिक गतिशीलता की नीतियों के साथ आर्थिक सुधारों को जोड़ने और यहां तक कि आर्थिक सुधार पारिस्थितिकी तंत्र के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाले अवसरों में गरीबों और समग्र रूप से भाग लेने वाले लोगों के साथ सुधारों के संयोजन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। श्रम सुधारों का उद्देश्य न केवल प्रतिस्पर्धा को बढ़ाना होगा, बल्कि दीर्घकाल में विकास के अवसर भी पैदा करना होगा। कौशल विकास को उच्च शिक्षा के साथ जोड़ना होगा। इसी तरह, वित्तीय समावेशन के लिए लैंगिक समानता पर भी ध्यान देना चाहिए। यह लगभग अपरिहार्य है कि एक विकासशील लोकतंत्र में एक सरकार अंतत: कुछ लोगों के व्यक्तिगत हितों के दबाव के आगे झुक जाए। प्रधानमंत्री को किसी भी कीमत पर उस सीमा तक नहीं झुकना चाहिए, जो विरासत में मिले मनोविकार को बढ़ाता और भड़काता हो।

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