कैंसर से भी ज्यादा खतरनाक है दहेज कुप्रथा, एक सामाजिक बुराई जो कभी भी अकेले नहीं आती

Khoji NCR
2021-07-15 09:10:58

विश्व बैंक के एक अध्ययन में पाया गया है कि भारत के गांवों-शहरों में दहेज कुप्रथा बदस्तूर जारी है। शोधकर्ताओं ने 1960 से लेकर 2008 तक ग्रामीण भारत में हुई 40,000 शादियों का अध्ययन किया और पाया कि 95 प्रतिश

त शादियों में दहेज दिया गया। यह हालात तब है जब देश में 1961 में ही इसे गैर-कानूनी घोषित किया जा चुका है। बावजूद इसके दहेज लेने और देने की कुप्रथा बदस्तूर जारी है, जिसका खामियाजा समाज के एक बड़े वर्ग को उठाना पड़ रहा है। दहेज के कारण आज भी समाज में महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता है, उनका शोषण होता है और उनके साथ घरेलू हिंसा होती है। ऐसे में कई बार उनकी मौत भी हो जाती है या उन्हें जान से मार दिया जाता है। समझना होगा कि दहेज एक सामाजिक बुराई है। यह बुराई कभी भी अकेले नहीं आती है, बल्कि अपने साथ भ्रष्टाचार, बेईमानी, धोखाधड़ी जैसी कई अन्य बुराइयों को भी लाती है। ऐसे में हमें इस समस्या को किसी न किसी तरह से जड़ से समाप्त करने के लिए प्रयास करने ही होंगे जिससे इन बुराइयों का सफाया किया जा सके। ऐसा नहीं है कि भारत में दहेज कुप्रथा का चलन किसी एक ही वर्ग, जाति या संप्रदाय के बीच है, बल्कि यह भारत में सभी प्रमुख धर्मो में प्रचलित है। हां, यह हो सकता है कि दहेज लेने और देने के स्वरूप में अंतर हो। ईसाई और सिख समाज में भी हिंदू और मुस्लिम समाज के जैसे ही दहेज लिया और दिया जाता है। कोई भी वर्ग इससे अछूता नहीं रह गया है। हाल के दिनों में दहेज लेने और देने के नए तौर-तरीके भी निकाल लिए गए हैं। अब यह जरूरी नहीं रह गया है कि दहेज नकद की दिया जाए। वह जेवर, गाड़ी और प्रोपर्टी के रूप में कुछ भी हो सकता है। इस कुप्रथा के कारण ही एक पिता जीवन भर अपनी बेटी की शादी के लिए पूंजी जमा करता रहता है। उसे लगता है कि जब वह अच्छा दहेज देगा तो उसकी लड़की की अच्छे घर में शादी हो सकेगी। ऐसे में लड़की के अच्छे संस्कार, गुण-शील का कोई मतलब नहीं रह जाता है। मतलब रह जाता है तो सिर्फ और सिर्फ दहेज का कि कितना लिया और कितना दिया। निश्चित रूप से दहेज कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी से भी बढ़ कर है। ऐसे में इसे खत्म करने के लिए समाज को मिलकर सामूहिक प्रयास करने ही होंगे। यह कुप्रथा एक सामाजिक बुराई है तो ऐसे में इसमें कानून, प्रशासन और सरकार की बहुत बड़ी भूमिका नजर नहीं आती है। इस बुराई को खत्म करने के लिए समाज में जन-जागरूकता लानी होगी और लोगों को यह अहसास कराना होगा कि यह अच्छाई नहीं, बल्कि बुराई है। जब लोग इस बात को समझने लगेंगे तो संभव है कि समय के साथ यह कुप्रथा धीरे-धीरे अपने आप खत्म हो जाए।

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