तावडू, 1 नवंबर (दिनेश कुमार): शहर व क्षेत्र के बाजारों में चाइनीज बल्बों वाली लडियां व अन्य इलक्ट्रोनिक सामान के आ जाने से मिट्टी के दीपक बनाकर अपना गुजर-बसर करने वालों कुम्हारों को संकटों से जु
झना पड रहा है। एक समय वह था जब लोग मिट्टी के दीपकों से अपने घरों को रोशन करते थे। अब जैसे-जैसे आधुनिकता ने पैर पसारे तो लोगों का दूसरे घरेलू उत्पदों की तरह मिट्टी के दीपकों से मोह भंग हो गया और चाइनीज उत्पादकों ने इसकी जगह ले ली। क्षेत्र के कुम्हार ओम प्रकाश, सुरेश कुमार, मदनलाल, सतीश कुमार, किशनलाल, बाबूलाल, सतपाल, विजयपाल, विनोद कुमार आदि ने बताया कि मिट्टी के दीपक व अन्य उत्पाद बनाना पहले की तरह इतना आसान नहीं रहा है। मंहगाई की मार से उनके क्षेत्र भी अछूता नहीं बचा है। इस पर भी अत्यधिक मेहनत, नतीजन कुम्हारों ने भी पैतृक व्यवसाय को छोडकर रोजी-रोटी के लिए दूसरे रास्ते चुन लिए हैं। आधुनिकता की दौड में परंपराओं और संस्कृतियों से नैतिक मूल्यों का पतन होता जा रहा है। वह चाहे संस्कृति को व्यक्त करने वाला कोई उत्सव हो, धार्मिक रिवाज व दीपावली तथा दशहरे जैसे पारंपरिक घरेलू त्यौहार। पहले छतों पर गमलों के पास, डेलियों पर मिट्टी के दीपक की सुदर कतारें देखने को मिलती थी। इन्हें घर की खुशहाली समृद्धि व मान का प्रतीक माना जाता था। अब धीरे-धीरे मिटती हुई अपनी पुरातन परंपराओं को बचाने की चिंता है।
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