नई दिल्ली। अफगानिस्तान न सिर्फ भारत का मित्र देश है, बल्कि वहां पर होने वाली राजनीतिक सरगर्मियां भारत को भी प्रभावित करती हैं। खासतौर पर जब वहां पर बात तालिबान की हो। तालिबान का जब-जब जिक्र
आता है, तब-तब कंधार विमान हादसा भी सामने आ जाता है। इसके अलावा तालिबान की पहचान एक क्रूर आतंकी संगठन की भी है। अफगानिस्तान के विकास में सबसे बड़ा रोड़ा भी वही है। पिछले वर्ष जब तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान के साथ अफगान शांति वार्ता के साथ समझौता किया तो उसमें पाकिस्तान तो शामिल था, लेकिन भारत शामिल नहीं थाा। इस प्रक्रिया में अफगानिस्तान की सरकार को भी नहीं रखा गया था। तालिबान का कहना था कि वो अमेरिका से हुए समझौते के बाद अफगानिस्तान की सरकार से वार्ता और फिर समझौता करेगा। भारत के इस प्रक्रिया में शामिल न होने पर पाकिस्तान काफी खुश हुआ था। उस वक्त पाकिस्तान ने बार-बार ये कहा कि भारत को अमेरिका ने अफगान शांति वार्ता में तरजीह नहीं दी और पाकिस्तान की अहमियत को समझते हुए उसको इसमें शामिल किया। लेकिन अब अमेरिका में निजाम के साथ वक्त और सियासत बदल चुकी हैं। दरअसल, अमेरिका के विदेश मंत्री एंटोनी ब्लिंकन ने इस प्रक्रिया में भारत को शामिल करने की बात कहकर पाकिस्तान का मुंह बंद करने का काम किया है। जवाहरलाल नेहरू यूनवर्सिटी (जेएनयू) के प्रोफेसर एचएस प्रभाकर का मानना है कि भारत को अफगानिस्तान की शांति प्रक्रिया में पहले ही शामिल किया जाना चाहिए था। उस वक्त ट्रंप ने भारत को इससे अलग कर गलत फैसला लिया था। अफगानिस्तान में भारत जहां शांति का पक्षधर है, वहीं पाकिस्तान उन चंद देशों में शामिल है, जिसने अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को मान्यता दी थी। ये उसकी केवल आतंकवाद को बढ़ावा देने की नीति की तरफ ही इशारा करती है। प्रोफेसर प्रभाकर का ये भी कहना है कि भारत के इस प्रक्रिया में शामिल होने के बाद पाकिस्तान की अहमियत अपनेआप ही कम हो गई है। जब से अमेरिका ने तालिबान के साथ समझौता किया था, तब से ही भारत इसको लेकर असहज था। भारत कभी नहीं चाहेगा कि कोई भी आतंकी संगठन अफगानिस्तान या दुनिया के किसी भी कोने में सरकार का गठन करे या उसमें शामिल हो। भारत ये भी नहीं चाहेगा कि कोई ऐसा वक्त आए, जब भारत इस तरह की सरकार के साथ चलने का फैसला करे। भारत हमेशा ही शांति का पक्षधर रहा है। भारत अफगानिस्तान में विकास का पक्षधर है। इसके लिए लेकर भारत ने वहां पर कई योजनाओं की शुरुआत की है। ऐसे में यदि तालिबान वहां की सत्ता पर काबिज होता है तो भारत जैसे किसी भी देश के लिए ये सही नहीं होगा। अमेरिकी प्रशासन ने अफगान शांति प्रक्रिया को आगे बढ़ाकर ये बताने का काम किया है कि वो इस क्षेत्र में स्थिरता और शांति बनाए रखना चाहता है। हालांकि, प्रोफेसर प्रभाकर का कहना है कि इसके पीछे अमेरिका का निजी हित है। वो यहां से अपनी फौज को अब पूरी तरह से हटाना चाहता है, लेकिन वो ये भी जानता है कि तालिबान की मौजूदगी से यहां पर कौन-कौन से देश प्रभावित हो सकते हैं। ऐसे में भारत को इस प्रक्रिया में शामिल करने का उसका फैसला सराहनीय कदम है। ऐसे में पाकिस्तान की बोलती बंद होनी तय है। पाकिस्तान की हर संभव कोशिश है कि अफगानिस्तान में तालिबान की स्थायी मौजूदगी हो, जबकि भारत उसको इससे दूर करना चाहता है। अमेरिका द्वारा भारत को इस शांति प्रक्रिया का हिस्सा बनाने के बाद पाकिस्तान कुछ कहने लायक नहीं रहेगा। प्रोफेसर प्रभाकर ये भी मानते हैं कि भले ही भारत पूर्व में इस प्रक्रिया से दूर था, लेकिन उसकी निगाह इस पर जरूर थी। रविवार को भी भारतीय विदेश मंत्री ने इस संबंध में अमेरिका के विशेष दूत से बात की थी।
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