तावडू, 26 अप्रैल (दिनेश कुमार): आज आधुनिकता के इस दौर में और युवाओं का पाश्चात्य सभ्यता की ओर बढ़ते रूझान में कोयल की कूक व गौरया की चहचाहट तथा कबूतरों की गुटर गूं क्षेत्र में सुनने को नहीं मिलती।
लोक संस्कृति की उन चीजों यानि पशु पक्षियों के प्रगाढ़ संवाद जो मनुष्य के जीवन का हिस्सा बनते थे, वो अब नहीं रहे। पहले लोग पक्षियों के लिए बाग बगीचो में व घरों की छतों पर अनाज व पानी का प्रबंध किया करते थे। जिससे पूरा वातावरण पक्षियों की चहचाहट से गुंजायमान रहता था। बाग बगीचे अब रहे नहीं, इनकी जगह अब पत्थरों की गगन चुम्बी इमारतों ने ले ली है। हालांकि पार्कों का प्रचलन बढ़ा है। लेकिन पक्षियों की कोई व्यवस्था नहीं की जाती। बच्चों को इन पक्षियों का साक्षात्कार मात्र किताबों से होता है। अब तितलिया तो रहीं नहीं तो बच्चें किसके पीछे भागे। इसका जिम्मेवार जितना प्रशासन है उतना ही हम भी है। गुजरे जमानों में पशु पक्षियों से बहुत प्यार किया जाता था। उनके खान पान की पूर्ण व्यवस्था भी की जाती थी। लेकिन आज भाग दौड की जिंदगी व आधुनिकता की हवा ने सब कुछ उड़ा दिया है। आज गृहणिया अपने घरों के वृद्धजनों के द्वारा दी गई हिदायतों के रूप में विरासत में मिले उस काम को भूल चुकी है। जो उन्हें करना चाहिए जैसे घरों की छतों पर अनाज डालना, पक्षीयों के लिए पीने का पानी रखना, घर में बनने वाली पहली रोटी गाय को खिलाना व रात को पहरा देने वाले कुत्ते को रोटी देना, अब सब खत्म हो गया।
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