खोजी/सुभाष कोहली कालका। मजदूरों द्वारा की गई कड़ी मेहनत का सम्मान करने के साथ-साथ श्रमिकों के अधिकारों के लिए लड़ने वालों को सम्मान देने के लिए श्रम दिवस को मनाया जाता है। इस दिन को भारत समेत
कई देशों में हर साल 1 मई के दिन मनाया जाता है। श्रम दिवस एक विशेष दिन है जो श्रम वर्ग को समर्पित है और उनकी कड़ी मेहनत और प्रयासों को माना जाता हैं। यह कहना है मिशन एकता समिति की प्रदेश महासचिव कृष्णा राणा का। राणा का कहना है कि मजदूर, जो हर क्षेत्र में अपना पसीना बहा कर, दिन रात कड़ी मेहनत करके उसे उन्नति के शिखर पर पहुंचा कर समृद्ध बनाता है, चाहे कोई उद्योग हो, सड़कें हो, पुल हो, भवन निर्माण हो, कोई खेत-खलिहान हो, कोई ढाबा या होटल हो या घरों-दुकानों में काम करने वाला मजदूर वर्ग हो, हर जगह वह कड़ी मेहनत करके अपना पसीना बहाता है। परंतु बड़े ही दुःख की बात है कि उसी वर्ग के साथ हर जगह अन्याय ही हो रहा है। आजादी के समय सरकारी व गैर-सरकारी चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारियों का वेतन लगभग एक समान था, जिसमें आज जमीन-आसमान का अन्तर आ चुका है। किन्तु मजदूर वर्ग, जो देश की रीढ है, उसे लाचार बनाया जा रहा है, उसकी मेहनत का पूरा मेहनताना भी उसे नहीं दिया जाता। देश के हर राज्य में मजदूरों का न्यूनतम वेतन अलग-अलग है, जबकि मंहगाई तो हर राज्य में एक समान है। एक तो लॉकडाऊन के कारण मजदूर वर्ग को आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा, ऊपर से बढ़ती हुई मंहगाई ने मजदूर वर्ग व मध्यम वर्ग की कमर तोड़ कर रख दी है। एक उद्योगपति जो सरकार से लोन लेकर एक कारखाना शुरू करता है, 8-10 सालों में उसी कम्पनी की कमाई से वह 4-5 नए कारखाने खड़े करके करोड़ों की सम्पत्ति जोड़ लेता है। किन्तु जिन लोगों की मेहनत उसे करोड़पति बनाती है, उनके साथ वह कभी न्याय नहीं करता, उल्टा कारखाने में काम देकर कामगारों पर एहसान जताया जाता है। यदि कोई उद्योगपति पैसा लगा कर कारखाने को खड़ा करता है तो कामगार/मजदूर भी अपनी कड़ी मेहनत से उस कारखाने को चलाता है। उद्योगपति व मजदूर एक गाड़ी के दो पहिए हैं, एक-दूसरे की जरूरत है। यदि एक ही पहिया घिसता रहे तो सफलता को असफलता में बदलते देर नहीं लगती। इसलिए दोनों को ही एक-दूसरे का ख्याल रखना पड़ेगा। राणा का कहना है कि कहने को तो मजदूरों के लिए बहुत से कानून बना रखे हैं, किन्तु वह केवल कागजों तक ही सीमित रहते हैं और अगर कभी किसी मामले में कागजों से बाहर निकल कर आ भी जाए तो उनका पक्ष रखने वाले ही उन कानूनों की धज्जियों उड़ाते हुए उद्योगपतियों के हाथों की कठपुलियां बन कर मजदूरों के साथ न्याय नहीं कर पाते, न्यायपालिका भी उद्योपतियों के आगे विवश नजर आती है। वर्तमान मंहगाई को देखते हुए प्राईवेट कम्पनियों में न्यूनतम वेतन कम से कम 15 से 20 हजार महीना होना चाहिए ताकि किसी भी आपात स्थिति में मजदूर वर्ग किसी पर बोझ ना बने।
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