नितिन वशिष्ठ की कलम से नई दिल्ली। दिसंबर 2019 की तरह ही दिल्ली की राजनीति एक बार फिर गरम प्रतीत हो रही है, पिछले वर्ष शाहीन बाग का प्रदर्शन लगभग 3 महीने से ज्यादा चला था और जिसने पूरे देश के साथ-साथ
पूरे विश्व का ध्यान भी भारत की तरफ खींच लिया था। 26 नवंबर 2020 से दिल्ली में चल रहा किसानों का आंदोलन और कितने समय तक चलेगा यह कहना मुश्किल है। पंजाब से आए हजारों किसानों के साथ साथ इस आंदोलन को हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुछ किसानों का समर्थन हासिल हो गया है। दिल्ली में प्रवेश के कई रास्तों को रोक दिया गया है जो आम लोगों के लिए असुविधा का कारण बन रहा है। इस कारण दिन प्रतिदिन करोड़ों रुपए का नुकसान लोगों को भुगतना पड़ रहा है। सरकार और प्रदर्शनकारी दोनों अभी तक अपनी-अपनी बात पर अडिग हैं। यह भी एक सच्चाई है कि भारत में लगभग 60% लोग आज भी कृषि से जुड़े हुए हैं, इनमें से 80% ऐसे किसान हैं जिनके पास एक हेक्टेयर या उससे भी कम जमीन है। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि इस 60% आबादी का भारत की जीडीपी में कुल योगदान केवल 17 परसेंट है। छह दौर की बातचीत के बाद भी कोई नतीजा नहीं निकला, किसानों की कई यूनियन कानून में संशोधन चाहती हैं, जबकि कई यूनियन ऐसी हैं जो चाहती हैं कि यह कानून पूरी तरीके से वापस हो, सरकार ने अपनी छवि को साफ रखने के लिए बातचीत के दरवाजे हमेशा खुले रखे हैं। इस किसान आंदोलन में हमने कई जगह देखा कि खालिस्तान के समर्थन में और उमर खालिद व शरजील इमाम जैसे लोग जो कि दिल्ली में दंगा फैलाने के आरोप में जेल में बंद है उनकी रिहाई के लिए भी कुछ ने आवाज उठाई है, जोकि पूर्ण रूप से गलत और दुर्भाग्यपूर्ण है। कुछ ऐसी गलतियों के कारण इस आंदोलन को भारत के बहुसंख्यक किसानों का समर्थन प्राप्त नहीं है और हमने देखा है कि इस आंदोलन के बावजूद कुछ राज्यों के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को काफी अच्छी सफलता मिली है। इससे यह पता चलता है कि भारत का आम किसान अभी तक इस आंदोलन के साथ नहीं जुड़ा है जिससे प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के किए हुए वादों पर उन्हें पूर्ण रुप से विश्वास है। बिल जो अब कानून का रूप ले चुका है उसमें तीन मुख्य रूप से प्रावधान सरकार की तरफ से किए गए हैं केंद्र सरकार ने किसानों को देश में कहीं भी फसल बेचने को आजाद किया है। ताकि राज्यों के बीच कारोबार बढ़ेगा। जिससे मार्केटिंग और ट्रांसपोटेशन पर भी खर्च कम होगा। इस बिल में सरकार ने किसानों पर राष्ट्रीय फ्रेमवर्क का प्रोविज़न किया गया है। यह बिल कृषि पैदावारों की बिक्री, फार्म सर्विसेज़, कृषि बिजनेस फर्मों, प्रोसेसर्स, थोक विक्रेताओं, बड़े खुदरा विक्रेताओं और एक्सपोर्टर्स के साथ किसानों को जुड़ने के लिए मजबूत करता है। कांट्रेक्टेड किसानों को क्वॉलिटी वाले बीज की सप्लाई यकीनी करना, तकनीकी मदद और कर्ज की सहूलियत तथा फसल बीमा की सहूलियत मुहैया कराई गई है। इस बिल में अनाज, दाल, तिलहन, खाने वाला तेल, आलू-प्याज को जरूरी चीजो की लिस्ट से हटाने का प्रावधान रखा गया है। जिससे किसानों को अच्छी कीमत मिले। नए कृषि बिलों को लेकर किसानों की शंकाएं: इस किसान बिल को लेकर किसान नेताओं को कुछ शंकाएं हैं और सरकार का यह दायित्व भी है कि वह किसानों की शंकाओं का समाधान करें। किसानों की जो पहली शंका है वह यह है कि इस कानून के आने के बाद सरकार द्वारा निर्धारित जो न्यूनतम समर्थन मूल्य है वह समाप्त हो जाएगा और अनाज की बिक्री उससे कम रेट पर होगी। वहीं किसानों की दूसरी जो सबसे बड़ी चिंता है वह यह है कि जब फसल की बिक्री मंडी से बाहर होगी तो एमएसपी पर चलने वाली यह मंडिया समाप्त हो जाएंगी। ई-नाम जैसे सरकारी ई-ट्रेडिंग पोर्टल का क्या होगा? अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि सरकार किसानों की नए कानून को लेकर जो चिंताएं हैं उनका समाधान किस हद तक कर पाती है। अभी तक की सभी बैठकें बेनतीजा रही हैं सरकार की तरफ से कुछ प्रस्ताव रखे गए हैं जो किसान प्रदर्शनकारियों को मंजूर नहीं है। सरकार किसी भी कीमत पर इस कानून को वापस लेना नही चाहती। वह कानूनों में कुछ फेरबदल करने के लिए तैयार है। लेकिन केंद्र सरकार के अनुसार कुछ किसान यूनियन जो शायद राजनीति से प्रेरित हैं उन्हें सरकार की बात पर भरोसा नहीं है और वह चाहती हैं कि यह आंदोलन ज्यादा से ज्यादा लंबा चले और सरकार के खिलाफ देश में एक माहौल तैयार हो सके। इस समय सरकार का कहना है कि इस कानून के आने के बाद किसानों को मंडियों के अलावा अपनी फसल बाहर बेचने का भी अधिकार है जो उन्हें पहले नहीं था। इसके अलावा सरकार का कहना है कि एमएसपी पर पहले की तरह फसल की खरीद जारी रहेगी। किसान अपनी उपज एमएसपी पर बेच सकेंगे। आगामी रबी सीजन के लिए एमएसपी अगले सप्ताह घोषित की जाएगी। किसान को अनाज मंडी के अलावा दूसरा ऑप्शन भी मिलेगा। सरकार द्वारा शुरू की गयी ई-नाम ट्रेडिंग व्यवस्था भी जारी रहेगी। इलेक्ट्रानिक मंचों पर कृषि उत्पादों का व्यापार बढ़ेगा। इससे पारदर्शिता आएगी और समय की बचत होगी। सरकार और आंदोलनकारी किसानों के बीच में ऐसा लग रहा है कि विश्वास की बहुत कमी है, प्रधानमंत्री मोदी की अपील के बावजूद किसान एमएसपी को लेकर बहुत चिंतित हैं, अभी तक जो आंदोलन दिल्ली के आसपास के मार्गों को रोके हुए था किसान उसको व्यापक रूप में ले जाते हुए राजस्थान बॉर्डर और अन्य क्षेत्रों में भी ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य: विधेयक-2020 में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) या सरकारी खरीद का कोई उल्लेख नहीं है। विधेयक का मकसद किसानों और व्यापारियों को मंडियों के बाहर उपज के क्रय-विक्रय की स्वतंत्रता देना है। एमएसपी जो कि मुख्य रूप से एक सरकारी नीति है वह आज तक भी किसी सरकारी कानून का हिस्सा नहीं है यहां तक की एमएसपी की सिफारिश करने वाली संस्था कमिशन फॉर एग्रिकल्चर कॉस्ट्स एंड प्राइसेज (सीएसीपी) को भी वैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं है। एमएसपी को पहली बार 1965 के युद्ध के बाद शुरू किया गया था जब देश में खाद्यान्न की कमी थी और महंगाई आसमान छू रही थी। 1966-67 के लिए पहली बार न्यूनतम समर्थन मूल्य की घोषणा की गई। स्थानीय सरकारी एजेंसी के जरिए खरीद कर एफसीआई और नेफेड के गोदामों में भंडारण की सुविधा उपलब्ध कराई गई ताकि बाद में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए जरूरतमंदों और गरीबों को कम कीमत पर राशन मुहैया कराया जा सके। यह भी एक सच्चाई है कि आज के किसान को कृषि में आने वाला खर्च हर साल बढ़ने वाला यूरिया खाद बिजली का बिल और अन्य कारक जो उसकी फसल की लागत मूल्य को बढ़ा रहे हैं उस अनुपात में सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं बढ़ाया जा रहा है जिस कारण किसान यूनियन हर वर्ष एमएसपी को बढ़ाने की मांग करती हैं ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य में कटौती की जरा सी भी आहट उन्हें बैचेन कर देती है। वर्तमान में असंतोष उसी का कारण है। दूसरी तरफ सरकार का कहना है कि उसने पिछली सरकारों की तुलना में हर फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य में अच्छी बढ़ोतरी की है। अपनी नियत को साफ दिखाने के लिए सरकार प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किसानों को हर साल दी जाने वाली 6 हजार रुपए की सहायता को भी आधार बनाती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों के लिए पिछले सरकारों की तुलना में जो कदम उठाए हैं वह सराहनीय है किंतु इसी कारण लगता है किसानों की उनसे ज्यादा अपेक्षा आए हैं और सरकार उन मांगों को पूरा करने में असमर्थ है। इस किसान आंदोलन में लगभग 40 किसान यूनियन भाग ले रही हैं उन सभी का अपना अपना नेतृत्व है और उनकी मांगे भी अलग-अलग तरह की हैं ऐसे में पूरे आंदोलन का नेतृत्व किसी एक के हाथ में ना होने के कारण भी सरकार को इस समस्या का समाधान करने में समय लग रहा है। भगवान सरकार और किसानों का सही मार्गदर्शन करे ताकि बातचीत के रास्ते खुले रहें, क्योंकि बातचीत ही किसी समस्या का समाधान हो सकती है।
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